अंगूर महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात में एक महत्वपूर्ण फसल है और कई राज्यों के किसान इस फसल को उगा रहे हैं। कोमल फफूंदी और पाउडरी फफूंदी रोग अंगूर की खेती के लिए प्रमुख समस्या हैं। इन रोगों के प्रबंधन के लिए निम्नलिखित रासायनिक नियंत्रण उपायों की सिफारिश की जाती है।
विवरण:- अंगूर की फसल में कोमल फफूंदी दुनिया के अधिकांश हिस्सों में पाया जाता है, जहाँ अंगूर की खेती की जाती हैं। लेकिन उन क्षेत्रों में जहां बेल के वनस्पति विकास के दौरान मौसम गर्म, नमी वाली परिस्थितियों हो अधिक प्रभावशाली होता है। कोमल फफूंद अंगूर की बेलों की पत्तियों, फलों और टहनियों को प्रभावित करता है। जिसे पत्ती मर जाती है फलो की गुणवत्ता खराब हो जाती है, और टहनिया कमजोर हो जाती है। जब मौसम अनुकूल होता है, और कोई नियंत्रण उपाय नहीं किया जाता है, तो कोमल फफूंदी आसानी से एक मौसम में ५०-७५% फसल को नुकसान पहुंचा सकती है।
कोमल फफूंद के लक्षण आमतौर पर सबसे पहले पत्तियों पर पीले, तैलीय घावों के रूप में देखे जाते हैं जो शुरू में पत्ती की ऊपरी सतह पर दिखाई देते हैं, और आमतौर पर पत्ती की शिराओं से चिपके होते हैं। घावों को देखेने पर सफेद सूती जैसा महसूस होता है, या पत्ती के नीचे की तरफ कोमल नर्म पदार्थ दिखाई देता हैं। कोमल फफूंदी वृद्धि विशिष्ट है और अंगूर की कई किस्मों की पत्ती की निचली सतह पर इसके लक्षण दिखाई देते है, प्राकृतिक बालों के साथ इस रोग को पहचान करने में भ्रमित नहीं होना चाहिए। रोग के लक्षण विशेष रूप से सितंबर और अक्टूबर में दिखाई देते है, जब दवा का छिड़काव बंद किया जाता है, इस समय पत्ते पर घाव शीघ्र बनते है, फफूंद एक विशेष पदार्थ उत्सर्जित करते है इस तरह के मलत्याग से शर्करा का संचय कम हो जाता है और ठंडक की कठोरता भी कम हो जाती है। कोमल फफूंदी अक्सर युवा टहनी और फलों के गुच्छों पर देखी जाती है। अनुकूल परिस्तिथि में संक्रमित टहनी मुड़ जाती है और सफेद हो जाती हैं। अंत में, प्रभावित हिस्से भूरे रंग की हो जाते हैं और मर जाते हैं। इसी तरह के लक्षण डंठल, टेंड्रिल्स (बेल) और युवा पुष्पक्रमों पर देखे जा सकते हैं।
कली आने की अवस्था में
एंट्राकोल
पहला छिड़काव:- एंट्राकोल को कली आने की अवस्था में (छंटाई के ७-८ दिन बाद) उपयोग किया जाना चाहिए। एंट्राकोल की मात्रा में ३०० ग्राम/१०० लीटर पानी में मिला कर उपयोग करना चाहिए।
पत्ता/वानस्पतिक अवस्था चरण
मेलोडी डुओ
पहला छिड़काव:- मेलोडी डुओ को वानस्पतिक अवस्था में (छंटाई के ९-१४ दिन बाद) ९०० ग्राम प्रति एकड़ की दर से उपयोग किया जाना चाहिए।
एलियट + एंट्राकोल
दूसरा छिड़काव:- एलिएट एंट्राकोल को वानस्पतिक अवस्था में (छंटनी के १५-१७ दिन बाद) उपयोग किया जाना चाहिए। एलियट ५६०-८०० ग्राम/एकड़ और एंट्राकोल ३०० ग्राम/१०० लीटर पानी में मिलाकर प्रभावी नियंत्रण के लिए उपयोग करना चाहिए।
मेलोडी डुओ
तीसरा छिड़काव:- मेलोडी डुओ को फूल आने से पहले (छंटाई के ३१-३५ दिन बाद) ९०० ग्राम प्रति एकड़ की दर से उपयोग करना चाहिए।
पुष्पन अवस्था में
प्रोफाडलर
पहला छिड़काव:- प्रोफाइलर को फूल आने से पहले (छंटाई के १८- २१ दिन बाद) ९०० से १००० ग्राम प्रति एकड़ उपयोग करना चाहिए।
दूसरा छिड़काव:- प्रोफाइलर को फूल आने से पहले (छंटाई के २५-३० दिन बाद) ९०० से १००० ग्राम प्रति एकड़ उपयोग करना चाहिए।
पाउडरी फफूंद के प्रारंभिक लक्षण पत्तियों की ऊपरी सतह पर हरिमहीन धब्बे के रूप में दिखाई देते हैं। रोग के लक्षण थोड़े समय बाद पत्ती की निचली सतह पर सफेद, कवक के जाल जैसे दिखाई देते हैं। जैसे ही इन जालो में बीजाणु उत्पन्न होते हैं, संक्रमित क्षेत्र सफेद, पाउडर या धूल भरे दिखाई देते हैं। और यह फल की पूरी सतह पर फैल जाते है।
पाउडर फफूंदी कवक बेल के सभी हरे ऊतकों को संक्रमित कर सकती है। पत्तियों की ऊपरी या निचली सतह पर फफूंद के सफेद या भूरे-सफेद रंग के धब्बे दिखाई देते हैं। ये धब्बे आमतौर पर तब तक बढ़ते हैं जब तक कि पत्ती की पूरी ऊपरी सतह पर पाउडर, सफेद से भूरे रंग की परत ना बना ले। ये धब्बे मौसम के अधिकांश समय में सीमित रह सकते हैं। गंभीर रूप से प्रभावित पत्तियाँ गर्म, शुष्क मौसम में ऊपर की ओर मुड़ सकती हैं। बड़ी पत्तियाँ जो संक्रमित होती हैं, वो विकृत और अवरुद्ध हो सकती हैं। युवा टहनियों पर संक्रमण सीमित होने की संभावना अधिक होती है, और वे गहरे भूरे से काले धब्बों के रूप में दिखाई देते हैं जो बेत की सतह पर निष्क्रिय गहरे धब्बे के रूप में रहते हैं।
पुष्पन अवस्था
नैटिवो
पहला छिड़काव:- नेटिवो को फूल आने से पहले (छंटनी के २०-२५ दिन बाद) इस्तेमाल किया जाता है। नेटिवो ७० ग्राम प्रति एकड़ उपयोग करना चाहिए।
लूना एक्सपीरियंस
दूसरा छिड़काव:- लूना एक्सपीरियंस को फूल आने की अवस्था (छंटनी के ३६-४० दिन बाद) उपयोग करना चाहिए। २२५ मिली
तीसरा छिड़काव:- लूना एक्सपीरियंस को जब फल बनने लगे (छंटाई के ४६-५० दिन बाद) उपयोग करना चाहिए। २२५ मिली प्रति एकड़ के अनुसार उपयोग करना चाहिए।
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